Sunday, 10 May 2020

बहुत दर्द होता है, हम जैसे मत बनिये


मेरा जीवन  यात्राओं, थकान, उलझनों, खुशियों और तनावों में डूबता-उतराता रहा है, आज इस अस्पताल में बैठा मैं अपना एक ठिकाना सा खोज रहा हूँ, अपने जीवन का मंतव्य क्योंकि आज ना तो न कोई ठौर है ना स्थायी ठिकाना.. साथ में मेरी  माँ है, जीवन में हमेशा सही को सही और गलत को गलत कहने वाली मेरी तार्किक आलोचक और मेरे कारण बेहद परेशान रहकर भी मुझसे मिलने पर हमेशा मुस्कुरा कर अपना दर्द छुपाने वाली मेरी सबसे सशक्त मित्र भी. मैं अपनी भावुकता को संभालते हुए कहना चाहता हूँ कि बहुत ऊब होती है अब, यहाँ सिर्फ पैसा है, दिखावा है, यह किसी दूसरी  दुनिया सा प्रतीत होता है राजनीति, हिंसा और  उत्पीडन पर्यायवाची से प्रतीत होते हैं.

जिसका हर बडे अधिकारी या मंत्री से गहरा और कभी-कभी तो अनैतिक तो कभी नाम मात्र का ही संबंध है वही अधिकतर अखबारों, कारपोरेट घरानों, सरकारी संस्थानों में तमाम लाभ के पद और पुरस्कार वही पाता है. मतलब,  जो श्रम से अधिक जुगाड और 'लायज़निंग'  निर्भर है वही समझदार है.  मैं इसे समझ पाने में हमेशा असफल ही रहा और मेरे  दोस्त इसे मेरा इमप्रक्टिकल होना बताते हैं. अपने संपर्क के जरिये किसी के विरुद्ध झूठा अभियान चलाना सिर्फ अपमानित करने के लिए.. एक डरावना आतंकवाद है, एक गिरोहबंदी उस समाज की  जहां गोबेल्स को शायद भगवान माना जाता हो.

धन्य हैं वो लोग जो मेरी अस्मिता को बचाए हुए हैं, अचानक वे कहीं से आते हैं और मुझे अंधेर होने के पहले गर्त में जाने से बचा लेते हैं. उनका मैं कृतज्ञ हूँ,  उनके अन्दर कोई एक गहरी नैतिक करुणा है, आवाज़ में एक वत्सलता है ऐसा मुझे लगता है, खैर अगर आप एक ईमानदार जीवन जीते हैं तो अन्यायी और भ्रष्ट लोग मिलकर आपके साथ वही व्यवहार करते है जैसा व्यवहार अपने समय के अशक्त  नागरिकों के  साथ अक्सर सरकार किया करती है.

अब ये  कैसा ज़हालत भरा आश्चर्य है कि यदि आप ताकतवर नहीं हैं, किसी गिरोह में नहीं हैं, किसी अफसर, मंत्री, व्यावसायिक घराने के परिचित या बौद्विक माफिया के सदस्य नहीं हैं तो कोई यह भी  सुनने के लिए तैयार नहीं कि तीन साल बिना किसी नौकरी के रहना कितना मुश्किल और जानलेवा रहा है मेरे और माँ के लिए सब के लिए ये या वो महत्वपूर्ण है.  हमसे कोई सरोकार नहीं और हो क्यों, कभी जब हम कुछ थे तो वो साथ भी थे, वर्ना हम  जैसे टाट के पैबंद कौन चाहेगा, अब ना तो पैसा रहा ना पद और वे सब ठहरे  मुस्कुराहटों से भरे, संतुष्ट और आर्थिक रूप से सुरक्षित लोग हैं. वे पूजनीय हैं और हम को समझते हैं, जीवन जीने की उनको तमीज है और हमें तो बस फ़ोकट में सबको सम्मान देने क़ी बेहूदा आदत रही है. खैर! वे सब महान हैं क्योंकि उन्हें जीवन जीना आता है. उनको नमन.

सच कहने की शक्ति चाहिए पर सच ये है कि मुझे गलत को गलत कहने के लिए इतनी बड़ी सजा मिली क्योंकि मैं कभी कमीना ना बन सका. मुझे डर ये भी लगता है कि अगर मैं यहाँ रहा तो कहीं मुझे भी इस बात के लिए भी दण्डित ना किया जाये की मैं महज एक अदना सा इंसान हूँ एक प्रैक्टिकल व्यक्ति नहीं. अगर ऐसा कुछ किया गया तो मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि ये सब जुगाडू  मेरी यंत्रणा में ताकतवर के, सत्ता के ही मददगार होंगें और उनके पास एक  सशक्त बहाना होगा हमें गलत कहने के  लिए.

पर यदि एक भी आँख में हमारे लिए याद रहे तो चलेगा.. आज बहुत समय बाद जब किसी से मिलता हूँ तो सब अपनी ही व्यथा सुनाते हैं, आदत रही है उनकी.  स्थितियाँ कितनी विकट हैं, पहले से भी  बदतर, पर ऐसा होगा इसकी मैंने कभी कल्पना नहीं की थी. नाम इसलिए नहीं दे रहा क्योंकि दयानत का बोझा उठाने की ताकत अब मेरे कन्धों में नहीं  है और हम जैसा कोई कन्धा कोई  मिला नहीं जो आगे बढ़ कर हमें शाब्दिक सुकून भी दे सका हो. चलिए चलते हैं वहां जहां हमारी कद्र हो, शायद किसी  बच्चे की जिंदगी में हमारा किताबी ज्ञान ही काम आ जाये. जब माँ कहती है कि हर रात की सुबह होती है तो आज भी मानने को  मन करता है.

इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि चाहता हूँ  की मेरी तरह किसी का भी हाल न हो, जो मुझसे कभी सीखते रहे आज सिखा रहे  हैं, जो हाथ बाँध कर सुनते थे वो सुना रहे  हैं, जो कभी हमारी चौखट से खुशियाँ पाते थे वो आज हमें दर्द का एहसास  करवा रहे हैं, जो साथ के लिए तरसते थे वो भगा रहे हैं.

बहुत दर्द होता है, शायद हमें ये जीवन जीना ही नहीं आता.
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