सरवरपुर की इंसानियत को सलाम.
आज के माहौल में हमें बापू की सबसे ज्यादा जरूरत है. गांधी से प्रेम करने वाले लोग हैं, घृणा करने वाले लोग हैं, घृणा जिसने गांधी जी की जान भी ली. लेकिन गांधी बनने तक का वह महान सफ़र, अहिंसा का वो रास्ता राजनीति में हमेशा प्रासंगिक और स्वीकार योग्य रहा. नफरत करने के बदले में प्यार लुटाने की सीख, भाईचारे व अमन का संदेश देकर और सब नफरतों के बीच दीवार बनकर बापू सच में कमाल कर गए. इसीलिए आज भी इस घृणा व हिंसा के माहौल में, बापू और उनके बताए रास्ते से बेहतर क्या कुछ हो सकता है.
वास्तव में कुछ स्वघोषित महान,
मान्यवर सिर्फ इतना चाहते
हैं की उनकी
प्रासंगिकता राष्ट्रीय राजनीति में
बनी रहे फिर
चाहे किसी अराजक विचार को आत्मसात करना
पड़े या माफ़ी-मास्टर बनना पड़े. यदि
चाहें तो मैं उन्हें बता सकता
हूँ की सेकुलर
सिर्फ वे ही
नहीं हैं. पंजाब
में समराला शहर
के पास एक
गाँव है सरवरपुर,
जहां 1947 के समय
एक मस्जिद का
विध्वंस हो गया
था. ज्यादा
पुरानी बात नहीं
है जब वहां
के गाँव वालो
की सदिच्छाओं, जगजीवन
जी और कृपाल
जी जैसे सज्जनों के अथक
प्रयासों और हम
जैसे नासमझों की
दुआओं से उसी
मस्जिद का पुनर्निर्माण
किया गया और
उसकी चाबी गाँव
के सबसे बुजुर्ग
गाँव वासी दादा
मोहम्मद को उस्मान
साहब (जो उस समय पंजाब
वक्फ बोर्ड के
चेयरमैन थे) की
मौजूदगी में सौप
दी गयी.
वस्तुतः दुनिया की पहली मस्जिद वाले पांच लाख से ज्यादा मस्जिदों वाले इस देश के मुस्लिम ऐसा कुछ करके एक नहीं अनेक उदाहरण पेश कर सकते हैं बशर्ते नेतृत्व उन्हें ऐसा करने दे. ये राजनीति भी बड़ी दिलचस्प चीज़ है, चाहे कुछ हो जाये पर सत्ता बरकरार रहनी चाहिए. वैसे भी कुछ नेताओं की सबसे बड़ी उपलब्धि तो आज ये होती है की साहब चर्चा में हैं, अब बस वही मानसिकता बची है कि, चर्चा में बने रहने के लिए कुछ भी.
वस्तुतः दुनिया की पहली मस्जिद वाले पांच लाख से ज्यादा मस्जिदों वाले इस देश के मुस्लिम ऐसा कुछ करके एक नहीं अनेक उदाहरण पेश कर सकते हैं बशर्ते नेतृत्व उन्हें ऐसा करने दे. ये राजनीति भी बड़ी दिलचस्प चीज़ है, चाहे कुछ हो जाये पर सत्ता बरकरार रहनी चाहिए. वैसे भी कुछ नेताओं की सबसे बड़ी उपलब्धि तो आज ये होती है की साहब चर्चा में हैं, अब बस वही मानसिकता बची है कि, चर्चा में बने रहने के लिए कुछ भी.
स्वभावतः हम हिन्दुस्तानी
मानवतावादी हैं. जब हिन्दू-सिखों ने मिलकर
एक इबादतगाह बना
दी तो
ऐसा मुसलमान क्यों
नहीं कर सकते.
कौन नहीं जानता
लाहौर की प्रसिद्ध दातागंज
बक्श दरगाह किस
महारानी ने बनवाई
थी. ये अलग-थलग करने की राजनीति इंसानियत की नहीं वोटों
की है और
उससे भी ज्यादा
सत्ता-लोलुपता की
है. बापू तेरे देश में अब शर्म और नैतिकता बहुत ज्यादा महँगी हो गई हैं, अब इन्हें
भला कौन समझाए
कि हिंदी हैं
हम वतन है,
हिन्दोस्तान हमारा.
बापू
के साथ-साथ
सरवरपुर के हर
वाशिंदे, हर
हिन्दुस्तानी को सलाम.